याद-ए-माज़ी
मजाज़ से पहली बार नौवी में इश्क हुआ उसके बाद फिर होता ही रहा, होता ही रहा, होता ही रहा
यूँ तो मैं कतई स्टार स्ट्रक नहीं हूँ पर एक बार मजाज़ के भांजे, मेरे दफ्तर आए हुए थे, मैं तब इक्कीस साल की थी। किस्मत से उस दिन मेरे पास मजाज़ के नज़्मों की एक किताब थी जिस पर चर्चा करने मैं सीधे अपने एडिटर के केबिन में, जहाँ जावेद बैठे हुए थे, जा धमकी और अपनी परेशानी बड़ी मासूमियत से उनके सामने रख दी. ये जानते हुए की न तो वो मौका ठीक था न ऐसा कोई दस्तूर, उन्होंने बड़े अदब से मुझे पुछा 'किसकी किताब है अम्मी या अब्बू की' तो मैंने फ़िज़ूल को आराम देने के लिए और वापिस अपने सवाल पर तवज्जो देने के लिए कह दिया 'बहुत ज़ाहिर सी बात है - मेरी।' उन्होंने मुस्कुराते हुए चुटकी ली "आपकी उम्र में लोग मजाज़ पढ़ते हैं, उन्हें पहचानते हैं यह देख अच्छा लगा "। मैंने थोडा सोच कर और शायद बड़ी आँखें बना कर कहा "पहचान तो बड़ी बेज़ार बात हुई मैं तो अपना हक समझती हूँ "। वो बड़ी ज़ोर से हँसे और मैं भी हंस दी।
हमारी बातें चल रही थीं की तभी मेरे फ़ाज़िल बॉस जो वहीँ बैठे थे, मुझे पहली बार उत्सुक देख, शायद जिज्ञासा और बातचीत में शामिल होने के लिए मुझसे अंग्रेजी में कहने लगे - "तुम कविताएँ पढ़ती हो? तुम्हारा पूरा नाम रावत है ना? तुम उत्तराखंड से हुई?" मैं जानती थी की वो पूछ नहीं रहे हैं सिर्फ कुछ बोलने भर के लिए बोल रहे हैं। इसलिए मैंने उन्हें देख कर मुलाज़िम वाली मुस्कराहट भेंट दी। जावेद उन्हें भी 'नौजवान खातून से' का हवाला देते हुए समझाने लगे की मजाज़ कितने तरक्कीपसंद थे और बेंतिहाई रूमानी। मेरे फ़ाज़िल बॉस शायद मुत्तासिर नहीं हुए क्यूंकि अभी जावेद की बात ख़त्म नहीं हुई थी की बात काटते हुए बोले "आज -कल लड़कियों को फरहान अख्तर कितने पसंद हैं और जल्द ही हम एक प्रोग्राम करने वाले हैं, उसमें फरहान और आपको बुलाने की सोच रहे हैं" यह कह भर उन्होंने जावेद का तवाजा तो हटाया ही बल्कि मेरे मिजाज़ और मजाज़ वही दफ्न कर दिए। जावेद ने अपने डगमगाते दस्तखत मजाज़ की नज़्म पर कर दिए और अपने काबिल बेटे और उसकी शोहरत के रंग में डूबने लगे। मुलाक़ात वहीँ रद्द होगई। और मेरा, खैर।
ये पुरानी बात आज किसी से बातों बातों में निकल आई। जिनसे बात हो रही थी वो बड़े हैरान हुए मेरी बातें सुन कर क्यूंकि अमूमन ऐसे अंदाज़ में बातें नहीं होती, कहने लगे - "अच्छा है सितम मेरे 'भरम' का ही रहे, तेरे आगोश में हर वक़्त मजाज़ ही रहे"
उनकी बात बेहद सच लगी, बड़े दिनों के बाद मजाज़ का ज़िक्र हुआ तो फिर वही बहुत जानी सी सरगोशी। ऐसा क्यूँ है की उनकी तासीर इतनी रूहानी है? मानो जब भी कभी मजाज़ को भुला सा दिया तो आंतों में बड़ा भारी खालीपन रहा। अपने हालातों से आज लड़ते वक़्त मजाज़ का इश्क कहीं दूर उठते धुंए सा होगया है। क्यूंकि दीमक अब बहुत अन्दर तक पहुँच गयी है इसलिए दवा तो नहीं हाँ लेकिन वो तकिया ज़रूर हुए वो, जिसने अपने आगोश में मेरा बड़ा बुरादा बटोरा। मैं कैसे कहूँ किस बे-इन्तेहाई से मजाज़ ने मेरे टूटते वक़्त और सब्र दोनों का बड़ा भार झेला है. मुझे यकीन है की अभी तो और कई होंगे जहाँ, बहुत मुमकिन होंगी जडें वहाँ.
मजाज़ के कहे से फिर एक बार उम्मीद बांधती हूँ -
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाब-ए-सहर* देखा तो है, जिस तरफ देखा न था, अब उस तरफ देखा तो है.
In some time zone, under or over the blue - Majaz is aware of my undying love for him
*सुबह होने का सपना
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-Rahul